ऋतुचर्या – एक परिचय
Seasonality (Ritucharya) – An Introduction
मुख्य रूप से तीन ऋतुएँ हैं: शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, वर्षा ऋतु। आयुर्वेद के मत अनुसार छ: ऋतुएँ मानी गयी हैं : वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर। महर्षि सुश्रुत ने वर्ष के 12 मास इन ऋतुओं में विभक्त कर दिए हैं।
वर्ष के दो भाग होते हैं जिसमें पहले भाग आदान काल में सूर्य उत्तर की ओर गति करता है तथा दूसरे भाग विसर्ग काल में सूर्य दक्षिण की ओर गति करता है।
आदान काल में शिशिर, वसंत एवं ग्रीष्म ऋतुएं और विसर्ग काल में वर्षा एवं हेमंत ऋतुएं होती हैं आदान के समय सूर्य बलवान और चंद्र क्षीणबल रहता है। शिशिर ऋतु उत्तम बलवाली, वसंत माध्यम बलवाली और ग्रीष्म ऋतु दौर्बल्यवाली होती है। विसर्ग काल में चंद्र बलवान और सूर्य क्षीणबल रहता है। चंद्र पोषण करनेवाला होता है। वर्षा ऋतु दौर्बल्य वाली, शरद ऋतु मध्यम बल व् हेमंत ऋतु उत्तम बलवाली होती है।
वसंत ऋतुचर्या –
शीत ऋतु व ग्रीष्म ऋतु का संधिकाल वसन्त ऋतु होता है। इस समय न अधिक सर्दी होती है और न अधिक गर्मी। इस मौसम (ऋतुचर्या) में सर्वत्र मनमोहक आमों के बौर की सुगंध से युक्त वायु चलती है। वसंत ऋतु को ऋतुराज भी कहा जाता है। वसंत पंचमी के शुभ पर्व पर प्रकृति सरसों के पीले फूलों का परिधान पहनकर मन को लुभाने लगती है। वसंत ऋतु में रक्तसंचार तीव्र हो जाता है जिससे शरीर में स्फूर्ति रहती है।
वसंत ऋतु में न तो गर्मी की भीषण जलन- तपन होती है और न वर्षा की बाढ़ और न ही शिशिर की ठंडी हवा, हिमपात व कोहरा होता है। इन्हीं कारणों से वसंत ऋतु को ‘ऋतुराज कहा गया है।
(वसन्ते निचित :श्लेष्मा दिनकृभ्दाभिरीरित :।)
चरक संहिता के अनुसार हेमतं ऋतु में सचित हुआ कफ वसंत ऋतु में सूर्य की किरणों से प्रेरित (द्रवीभूत)होकर कुपित होता है जिससे वसंत कल में खासी, सर्दी- जुकाम, टोनसिल्स में सूजन, गले में खरास, शरीर में सुस्ती व् भारीपन आदि की शिकायत होने की संभावना रहती है। जठराग्नि मंद हो जाती है अतः इस ऋतु में आहार- विहार के प्रति सावधान रहें।
वसंत ऋतु – ऋतुचर्या अनुसार आहार-विहार:
इस ऋतु में कफ को कुपित करनेवाले पौष्टिक और गरिष्ठ पदार्थों की मात्रा धीरे-धीरे कम करते हुए गर्मी बढ़ते ही बंद करके सादा सुपाच्य आहार लेना शुरू कर देना चाहिए। चरक के अनुसार इस ऋतु में भारी, चिकनाईवाले, खट्टे और मीठे पदार्थों का सेवन व दिन में सोना वर्जित है।
प्रातः वायु सेवन के लिए घूमते समय 15-20 नीम की नई कोंपलें चबा- चबाकर खायें। इस प्रयोग से वर्षभर चर्मरोग, रक्तविकार और ज्वर आदि रोगों से रक्षा करने की प्रतिरोधक शाक्ति पैदा होती है।
यदि वसंत ऋतु में आहार-विहार के उचित पालन पर पूरा ध्यान किया जाय और बदपरहेजी न की जाय तो वर्तमान काल में स्वास्थ्य की रक्षा होती है। साथ ही ग्रीष्म तथा वर्षा ऋतु में स्वास्थ्य की रक्षा करने की सुविधा हो जाती है। प्रत्येक ऋतु में स्वास्थय की दृष्टि से यदि आहार का महत्व है तो विहार भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
इस ऋतु में उबटन लगाना, तेलमालिश, धुप का सेवन, हल्के गर्म पानी से स्नान, योगासन और हल्का व्यायाम करना चाहिए। देर रात तक जागने और सुबह देर तक सोने से मल सूखता है, आँख व चहरे की काँती क्षीण होती है। अतः इस ऋतु में देर रात तक जागना, सुबह देर तक सोना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। हरड़ के चूर्ण का नियमित सेवन करनेवाले इस ऋतु में थोड़े से शहद में यह चूर्ण मिलाकर चाटें।
ग्रीष्म ऋतुचर्या
ग्रीष्म ऋतु में हवा लू के रूप में तेज लपट की तरह चलती है जो बड़ी कष्टदायक और स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद होती है। अतः इन दिनों में पथ्य आहार- विहार का पालन करके स्वस्थ रहें।
पथ्य आहार:
सूर्य की तेज गर्मी के कारन हवा और पृथ्वी में से सौम्य अंस (जलीय अंस ) काम हो जाता है। अतः सौम्य अंस की रखवाली के लिए मधुर, तरल, हल्के, सुपाच्य, जलीय, ताजे शीतल तथा स्निग्ध गुणवाले पदार्थो का सेवन करना चाहिये जैसे : ठंडाई, घर का बनाया हुआ सत्तू, त्ताज़े (कच्चे) दूध में पानी और शक्कर मिलाकर पियें। पानी में नींबू निचोड़कर बनायीं हुई शिकंजी, खीर, दूध, कैरी, मौसम्मी, अनार, अंगूर, गहि, ताज़ी चपाती, छिल्केवाली मुंग की दाल, लौकी, गिलकी, चने की भाजी, चौलाई, परवल, केले की सब्जी, हरी ककड़ी, हरी धनिए, पुदीना, कच्चे आम को भूनकर बनाया गया मीठा पना, गुलकंद, पेठा आदि खाना चाहिए।
इस ऋतु में हरड़ का सेवन गुड़ के साथ समान मात्रा में करना चाहिये जिससे वाट या पित्त का प्रकोप नहीं होता है। इस ऋतु में प्रातः ‘पानी- प्रयोग़ अवश्य करना चाहिए जिसमें सुबह- सुबह खाली पेट सवा लीटर पानी पीना होता है। इससे रक्तचाप, मधुमेह दमा, टी.बी. जैसी भयंकर बीमारियां भी नष्ट हो जाती है। यह प्रयोग न करते हों तो शुरू करें और लाभ उठायें। घर से बाहर निकलते समय एक गिलास पानी पीकर ही निकलना चाहिये। इससे लू लगने की सम्भावना नहीं रहेगी बाहर के गर्मी भरे वातावरण में से आकर तुरंत पानी नहीं पीना चाहिये। 10-15 मिनट बाद ही पानी पीना चाहिये। इस ऋतु में रात को जल्दी सोकर प्रातः जल्दी जगना चाहिये। रात को जगना पड़े तो एक-एक घंटे पर ठंडा पानी पीते रहें इससे उदर में पित्त और कफ का प्रकोप नहीं रहता।
पथ्य विहार:
प्रातः सूर्योदय से पहले ही जागें। शीतल जलाशय के पास घूमें। शीतल पवन जहाँ आती हो वह सोयें। जहाँ तक संभव हो, सीधी धूप से बचना चाहिये। सिर और आँखों को सूर्य की किरणों से बचाना चाहिए। सिर पर चमेली, बादाम- रोगन, नारियल, लौकी का तेल लगाना चाहिए।
अपथ्य आहार:
तीखे, खट्टे, कसैले एवं कड़वे रसवाले पदार्थ इस ऋतु में नहीं खाने चाहिये। नमकीन, तेज मिर्च-मसालेदार तथा तले हुए पदार्थ, बासी दही, अमचूर, आचार, सिरका, इमली आदि ना खाएं। मद्य पीना ऐसे तो हानिकारक है ही लेकिन इस ऋतु में विशेष हानिकारक है। फ्रिज का पानी पीने से दांतों तथा मसूढ़ों में कमजोरी, गले में विकार, टॉन्सिल्स में सूजन, सर्दी- जुकाम आदि व्याधियां होती हैं। मिटटी के मटके का पानी पियें।
अपथ्य विहार:
रात को देर तक जागना और सुबह देर तक सोये रहना त्याग दें। अधिक व्यायाम, स्त्री सहवास, उपवास, अधिक परिश्रम, दिन में सोना, भूक-प्यास सहना वर्जित है।
वर्षा ऋतु में आहार-विहार:
वर्षा ऋतु से ‘आदानकाल ‘ समाप्त होकर सूर्य दक्षिणायन हो जाता है और विसर्गकाल शुरू हो जाता है। इन दिनों हमारी जठराग्नि अत्यंत मंद हो जाती है। वर्षाकाल में मुख्य रूप से वात- दोष कुपित रहता है। अतः इस ऋतु में खान- पान तथा रहन- सहन पर ध्यान देना अत्यंत जरुरी हो जाता है।
गर्मी के दिनों में मनुष्य की पाचक अग्नि मंद हो जाती है। वर्षा ऋतु में यह और भी मंद हो जाती है। फलस्वरूप अजीर्ण, अपच, मंदाग्नि, उदरविकार आदि अधिक होते हैं।
आहार:
इन दिनों में देर से पचने वाला आहार न लें। मंदाग्नि के कारण सुपाच्य और सादे खाद्य पदार्थों का सेवन करना ही उचित है। बासी, रूखे और उष्ण प्रकृति के पदार्थो का सेवन न करें। इस ऋतु में पुराने जौ, गेहूँ, साठी के चावल का सेवन विशेष लाभप्रद है। वर्षा ऋतु में भोजन बनाते समय आहार में थोड़ा- सा मढ़ी (शहद) मिला देने से मंदाग्नि दूर हो जाती है व भूख खुलकर लगती है। अल्प मात्रा में मधु के नियमित सेवन से अजीर्ण, थकन और वायुजन्य रोगों से भी बचाव होता है।
इन दिनों में गाय-भैंस के कच्ची घास खाने से उनका दूध दूषित रहता है। अतः श्रावण मास में दूध एवं पत्तेदार हरी सब्जी तथा भादों में छाछ का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया है।
तेलों में तिल के तेल का सेवन करना उत्तम है। यह वात- रोगों का शमन करता है।
वर्षा ऋतु में उदर-रोग अधिक होते हैं, अतः भोजन में अदरक व निम्बू का प्रयोग प्रतिदिन करना चाहिये। नीबू वर्षा ऋतु में होने वाली बिमारियों में बहुत ही लाभदायक है।
इस ऋतुचर्या में आम तथा जामुन सर्वोत्तम माने गये हैं। आम आँतों को शक्तिशाली बनाता है। चूसकर खाया हुआ आम पचने में हल्का तथा वायु एवं पित्तविकारों का सामान करता है। जामुन दीपन, पाचन तथा अनेक उदार- रोगों में लाभकारी है।
वर्षाकाल के अंतिम दिनों में व शरद ऋतु का प्रारंभ होने से पहले ही तेज धूप पड़ने लगती है और संचित पित्त कुपित होने लगता है। अतः इन दिनों में पित्तवर्धक पदार्थो का सेवन नहीं करना चाहिये।
इन दिनों में पानी गन्दा व जीवाणुओं से युक्त होने के कारण अनेक रोग पैदा करता है। अतः इस ऋतुचर्या में पानी उबालकर पीना चाहिये या पानी में फिटकरी का टुकड़ा घुमाएँ जिससे गन्दगी निचे बैठ जाएगी।
वर्षा ऋतुचर्या विहार:
इन दिनों में मच्छरों के काटने पर उत्पन्न मलेरिया आदि रोगों से बचने के लिए मछरदानी लगाकर सोयें। चर्मरोग से बचने के लिये शरीर की साफ- सफाई का भी ध्यान रखें। अशुद्ध व् दूषित जल का सेवन करने से चर्मरोग, पीलिया, हैजा, अतिसार जैसे रोग हो जाते है।
दिन में सोना, नदियों में स्नान करना व बारिश में भीगना हानिकारक होता है।
वर्षाकाल में रसायन के रूप में बड़ी हरड़ का चूरन व चुटकीभर सेंधा नमक मिलकर ताजे जल के साथ सेवन करना चाहिये। वर्षाकाल समाप्त होने पर शरद ऋतु में बड़ी हरड़ के चूरन के साथ सामान मात्रा में शक्कर का प्रयोग करें।
शरद ऋतु में स्वस्थ्य सुरक्षा –
समग्र भारत की दृष्टि से 13 सितम्बर से 14 नवम्बर तक शरद ऋतु मानी जा सकती है।
वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु आती है। वर्षा ऋतु में प्राकृतिक रूप से संचित पित्त- दोष का प्रकोप शरद ऋतु में बढ़ जाता है। इससे इस ऋतुचर्या में पित्त का पाचक स्वभाव दूर होकर वह विदग्ध बन जाता है। परिणामस्वरूप बुखार, पेचिश, उलटी, दस्त, मलेरीया अदि होता है। आयुर्वेद में समस्त ऋतुओं में शरद ऋतु को ‘रोगों की माता ‘ कहा है। इस ऋतु को ‘प्रहार यम की दाढ़’ भी कहा गया है।
इस ऋतु में पित्त-दोष एवं लवण रस की स्वाभाविक ही वृद्धि हो जाती है। सूर्य की गर्मी भी विशेष रूप से तेज लगती है। अतः पित्त- दोष, लवण रस और गर्मी इन तीनों का शमन करे ऐसे मधुर (मीठे), तिक्त (कड़वे) एवं कषाय (तूरे) रस का विशेष उपयोग करना चाहिए। पित्त दोष की वृद्धि करे ऐसी खट्टी, खारी एवं तीखी वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। पित्त-दोष के प्रकोप की शांति के लिए मधुर, ठंडी, भारी, कड़वी एवं तुरी (कसैली) वस्तुओं का विशेष सेवन करें।
इस ऋतु में सब्जियाँ खूब होती हैं किन्तु उसमे वर्षा ऋतु का नया पानी होने की वजह से वे दोषयुक्त होती हैं। उनमें लवण (खारे) रस की अधिकता होती है। अतः जहाँ तक हो सके शरद ऋतु में सब्जियां कम लें एवं भादों (भाद्रपद) के महीने में तो उन्हें त्याज्य ही मानें।
घी- दूध पित्त-दोष का मारक है इसलिए हमारे पूर्वजों ने भादों में श्राद्ध पक्ष का आयोजन किया होगा।
इस ऋतु में अनाज में गेहूँ, जौ, ज्वार, धान, सामा ( एक प्रकार का अनाज ) आदि लेना चाहिये। दलहन में चने, तुअर, मुंग, मठ, मसूर, मटर लें। सब्जी में गोभी, ककोड़ा, (खेखसा), परवल, गिल्की, ग्वारफली, गाजर,, मक्के का भुट्टा, तुरई, चौलाई, लौकी, पालक, कद्दू, सहजने की फली, सूरन (जमीकंद), आलू वगैरह लिये जा सकते हैं। फलो में अंजीर, पके केले, जामफल (बिही), जामुन, तरबूज, अनार, अंगूर, नारियल, पका पपीता, मौसम्मी, निम्बू, गन्ना आदि लिया जा सकता है। सूखे मेवे में अखरोट, आलू बुखारा, काजू, खजूर, चारोली, बादाम, सिंघाड़े, पिस्ता आदि लिये जा सकते हैं। मसाले में जीरा, आवंला, धनिया, हल्दी,खसखस, दालचीनी, काली-मिर्च, सौंफ आदि लिये जा सकते हैं। इसके अलावा नारियल का तेल, अरंडी का तेल, घी, दूध,मक्खन, मिश्री, चावल आदि लिये जायें तो अच्छा है।
ऋतु शरद में खीर, रबड़ी आदि ठंडी करके खाना आरोग्यता के लिये लाभप्रद है। पके केले में घी और इलायची डालकर खाने से लाभ होता है। गन्ने का रस एवं नारियल का पानी खूब फायदेमंद है। काली द्राक्ष (मुनक्के), सौंफ एवं धनिया को मिलाकर बनाया गया पेय गर्मी का शमन करता है।
शरद ऋतुचर्या में त्याज्य वस्तुएँ :
शरद ऋतु में ओस, जवाखार जैसे क्षार, दही, खट्टी छाछ, तेल, चर्बी, गरम-तीक्षण वस्तुएँ, खारे-खट्टे रास की चीजें त्याज्य हैं। बजरी, मक्का, उड़द, कुल्थी, चौला, फूट, प्याज, लहसुन, मेथी की भाजी, नोनिया की भाजी, रतालू, बैंगन, इमली, हींग, पुदीना, फालसा, अन्ननास, कच्चे बेलफल, कच्ची कैरी, तिल, मूँगफली, सरसों आदि पित्तकारक होने से त्याज्य हैं। खासकर खट्टी छाछ, भिंडी एवं ककड़ी न लें। इस ऋतु में तेल की जगह गहि का उपयोग उत्तम है। जिनको पित्त- विकार होता हो, उन्हें महासुदर्शन चूरन, नीम, नीम की अंतर्छाल जैसी कड़वी एवं तुरी कसैली चीजें खास करके उपयोग में लानी चाहिए।
ऋतुजन्य विकारों से बचने के लिए अन्य दवाइयों पर पैसा खर्च करने की उपेक्षा आँवला 10 ग्राम, धनिया 10 ग्राम, सौंफ 10 ग्राम, मिश्री 35 ग्राम लेकर चूरन बनाकर खाने के आधे घंटे बाद पन्नी के साथ लेना हितकर है। इस ऋतुचर्या में जुलाब लेने से पित्त- दोष शरीर से निकल जाता है और इस प्रकार पित्तजन्य विकारों से रक्षा होती है। जुलाब के लिए हरड़ उत्तम औषधि है।
इस ऋतु में शरीर पर कपूर एवं चन्दन का उबटन लगाना, खुले में चांदनी में बैठना, घूमना-फिरना, चंपा, चमेली, मोगरा, गुलाब आदि पुष्पों का सेवन करना लाभप्रद है। दिन की निद्रा, धुप बर्फ का सेवन, अति परिवश्रम, थका डेल ऐसी कसरत एवं पूर्व दिशा से आनेवाली वायु इस ऋतुचर्या में हानिकारक है।
शरद ऋतु में रात्रि में पसीना बने ऐसे खेल खेलना, रास- गरबा करना हितकर है। होम- हवन करने से, दीपमाला करने से वायुमंडल की शुद्धि होती है।
हेमंत और शिशिर की ऋतुचर्या
शीतकाल आदानकाल और विसर्गकाल दोनों का संधिकाल होने से इनके गुणों का लाभ लिया जा सकता है क्योंकि विसर्गकाल की पोषक शक्ति हेमंत ऋतु में हमारा साथ देती है। साथ ही शिशिर ऋतु में आदानकाल शुरू होता जाता है लेकिन सूर्य की किरणे एकदम से इतनी प्रखर भी नहीं होती की रास सुखाकर हमारा शोषण कर सकें अपितु आदानकाल का प्रारम्भ होने से सूर्य की हल्की और प्रारंभिक किरणें सुहावनी लगती हैं।
शीतकाल में मनुष्य को प्राकृतिक रूप से ही उत्तम बल प्राप्त होता है। प्राकृतिक रूप से बलवान बने मनुष्यों की जठरांग्नि ठंडी के कारण शरीर के छिद्रों के संकुचित हो जाने से जठर में सुरक्षित रहती है, और इस कारण अधिक प्रबल हो जाती है। यह प्रबल हुई जठरांग्नि ठण्ड से कारण उत्पन्न वायु से और अधिक भड़क उठती है। इस भभकती अग्नि को यदि आहाररूपी ईंधन कम पड़े तो वह शरीर की धातुओं को जला देती है। अतः सहित ऋतु में खरे, खट्टे और मीठे पदार्थ खाने पिने चाहिए। इस ऋतु में शरीर को बलवान बनाने के लिए पौष्टिक, शक्तिवर्धक और गुणकारी व्यंजनों का सेवन करना चाहिए।
इस ऋतु में गहि, तेल, गेहूँ, उड़द, गणना दूध, सोंठ, पीपर, आंवले वगैरह में से बने स्वादिष्ट एवं पौष्टिक व्यंजनों का सेवन करना चाहिए। यदि इस ऋतु में जठरांग्नि के अनुसार आहार न लिया जाय तो वायु के प्रकोपजन्य रोगों के होने की संभावना रहती है। जिनकी आर्थिक स्तिथि प्राचीन हो, उन्हें रात्रि को भिगोये हुए देसी चने सुबह नास्ते के रूप में चबा- चबाकर खाने चाहिए। जो शारीरिक परिश्रम अधिक करते हैं उन्हें केले, आंवले का मुरब्बा, तिल, गुड़, नारियल, खजूर अदि का सेवन करना अत्यधिक लाभदायक है।
एक बात विशेष ध्यान में रखने जैसी है की इस ऋतु में रातें लंबी और ठंडी होती हैं। अतः केवल इसी ऋतु में आयुर्वेद के ग्रंथो में सुबह नास्ता करने के लिए कहा गया है, अन्य ऋतुओं में नहीं।
अधिक एलोपैथी दवाओं के सेवन से जिनका शरीर दुर्बल हो गया हो उनके लिए भी विभिन्न औषधि प्रयोग जैसे की अभयामल की रसायन, वर्धमान पिप्पली प्रयोग, भल्लातक रसायन, शिलाजीत रसायन, त्रिफला रसायन, चित्रक रसायन, लहसुन के प्रयोग वैद्य से पूछकर किये जा सकते हैं।
जिन्हे कब्जियत के तकलीफ हो उन्हें सुबह खली पेट हरड़ एवं गुड़ अथवा यष्टिमधु एवं त्रिफला का सेवन करना चाहिए। यदि शरीर में पित्त हो तो पहले कटुकी चूरन एवं मिश्री लेकर उसे निकल दे। सुदर्शन चूरन अथवा गोली थोड़े दिन खायें।
विहार :
आहार के साथ विहार एवं रहन- सहन में भी सावधानी रखना आवश्यक है। इस ऋतु में शरीर को बलवान बनाने के लिए तेल की मालिश करनी चाहिए। चने के आटे, लोध्र अथवा आँवले के उबटन का प्रयोग लाभकारी है। कसरत करना अर्थात दंड- बैठक लगाना, कुस्ती करना, दौड़ना, तैरना, आदि एवं प्राणयाम और योगासनों का अभ्यास करना चाहिए।
सूर्यनमस्कार, सूर्यस्नान एवं धुप का सेवन इस ऋतुचर्या में लाभदायक है। शरीर पर अगर का लेप करें। सामान्य गर्म पानी से स्नान कारण किन्तु सिर पर गर्म पानी न डालें। कितनी भी ठण्ड क्यों न हो, सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लेना चाहिए। रात्रि में सोने से हमारे शरीर में जो अत्यधिक गर्मी उतपन्न होती है वह स्नान करने से बाहर निकल जाती है जिससे शरीर में स्फूर्ति का संचार होता है।
सुबह देर तक सोने से यही हानि होती है की शरीर की बढ़ी हुई गर्मी सिर, आँखों, पेट, पित्ताशय, मूत्राशय, मलाश्यासुकृष्य आदि अंगो पर अपना बुरा असर करती है जिससे अलग-अलग प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सुबह जल्दी उठकर स्नान करने से इस अवयवों को रोगों से बचाकर स्वस्थ रखा जा सकता है।
गर्म-ऊनि वस्त्र पर्याप्त मात्रा में पहनना, अत्यधिक ठण्ड से बचने हेतु रात्रि को गर्म कम्बल ओढ़ना, रजाई आदि का उपयोग करना गर्म कमरे में सोना एवं अलाव तपना लाभदायक है।
अपथ्य :
इस ऋतु में अत्यधिक ठण्ड सहना, ठंडा पानी, ठंडी हवा, भूख सहना, उपवास करना, रुक्ष, कड़वे, कसैले, ठन्डे एवं बासी पदार्थों का सेवन, दिवस की निद्रा, चित्त को काम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष से वयाकुल रखना हानिकारक है।